बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है…यह नारा यूं ही नहीं गूंजा। करीब दो दशकों से, नीतीश कुमार बिहार की राजनीति की धुरी बने हुए हैं। सत्ता चाहे एनडीए की हो या महागठबंधन की, चेहरा एक ही नीतीश कुमार। 2005 से उन्होंने बिहार की सत्ता को अपनी अंगुलियों पर नचाया है। सुशासन बाबू से पलटीमार बनने में उन्होंने गुरेज नहीं किया, क्योंकि सियासी शतरंज की बिसात पर नीतीश बादशाह से नीचे आने को तैयार नहीं हुए।
इस दौरान भले ही 278 दिनों के लिए नीतीश सीएम की कुर्सी से दूर रहे, लेकिन पावर उनके पास ही रहा। सुशासन बाबू से पलटीमार और पलटूराम बनने में भी उन्होंने गुरेज नहीं किया। साजिश चाहे जितनी भी गहरी रही…सबकुछ नीतीश की सियासी गहराई में समा गई। विरोधी कहते हैं कि नीतीश का स्वास्थ्य अब जवाब दे रहा है, लेकिन नीतीश के समर्थक कहते हैं कि बिहार में अब भी नीतीश का कोई जवाब नहीं। अचेत नहीं सचेत नीतीश, तभी बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में फिर से गूंजा विकास की बयार, आत्मनिर्भर बिहार, नीतीश कुमार।
लालू के छत्र से बाहर : टर्निंग पॉइंट वर्ष 2000-2005
इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले नीतीश का औपचारिक सियासी आगाज 1985 में विधानसभा चुनाव जीतकर हुआ था। वह जेपी आंदोलन के दौरान लालू जैसे समाजवादी नेताओं के साथ रहे, लेकिन लालू के बढ़ते प्रभुत्व और जंगलराज की छवि ने उन्हें असहज कर दिया। कुर्सी के लिए प्रतिद्वंद्विता ने टकराव बढ़ाया। नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई और एनडीए के पाले में चले गए। साल 2000 बिहार की सियासत के लिए टर्निंग पॉइंट था। विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश ने एनडीए के समर्थन से सिर्फ 7 दिनों के लिए सीएम की शपथ ली और बहुमत साबित न कर पाने के कारण इस्तीफा दिया। सात दिनों की वह पारी नीतीश को लालू के विकल्प के तौर पर स्थापित कर गई।
भाजपा का साथ व सुशासन बाबू नीतीश का आगाज
लालू-राबड़ी शासन और चारा घोटाला के आरोपों के बीच, नवंबर 2005 में हुए चुनाव में जदयू और भाजपा गठबंधन ने बहुमत हासिल किया। चुनाव का चेहरा नीतीश कुमार ही थे। यहीं से नीतीश युग का आगाज हुआ, जिसे बनाने में भाजपा की बड़ी भूमिका थी। तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी मैदान से नीतीश कुमार को एनडीए की तरफ से मुख्यमंत्री के रूप में चेहरा घोषित कर दिया था। भाजपा के तत्कालीन महासचिव और बिहार के प्रभारी अरुण जेटली के साथ नीतीश की दोस्ती अपने आप में एक मिसाल थी। जेटली रणनीतिकार थे और नीतीश चेहरा।
- यहां तक कि जेडी (यू) के उस समय के सबसे बड़े नेता जार्ज फर्नांडिस की जानकारी और बिना बात किए नीतीश को वाजपेयी ने चेहरा घोषित कर दिया था। पार्टी में बवाल हुआ, लेकिन जेटली ने सब संभाल लिया।
- अपराध, परिवारवाद और भ्रष्टाचार से कराहते बिहार को नीतीश ने नई रोशनी दिखाई। उन्होंने अपराध और विकास को बढ़ावा देकर देश में बिहार मॉडल की चर्चा को जन्म दिया और सुशासन बाबू के तौर पर उभरे।
2010 में नीतीश का मास्टर स्ट्रोक
2010 के विधानसभा चुनाव में तो नीतीश का मास्टर स्ट्रोक चला। जदयू और भाजपा गठबंधन ने 206 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया। साइकिल योजना जैसी महिला केंद्रित राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग के बूते उन्होंने अपने लिए एक स्थायी वोट मशीन का ईजाद किया। उन्होंने लालू के एमवाई समीकरण की काट के लिए अपनी जाति कुर्मी और कोयरी को मिलाकर ‘लव-कुश’ समीकरण को मजबूत किया। साथ ही लालू के यादव प्रभुत्व से नाराज अति-पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और महादलित को अलग पहचान और आरक्षण देकर अपने पाले में किया। यह रणनीति पिछड़े के भीतर पिछड़ा को साधने की थी, जिसकी शुरुआत कर्पूरी ठाकुर ने की थी।
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निष्कर्ष : जाति की कालिमा में सुशासन की चमक
चाहे दहेज विरोधी कदम हो, या फ्रीबिज का विरोध, नीतीश ने हमेशा सिद्धांतवादी नेता की छवि बनाने की कोशिश की। लेकिन, राजनीति में उनकी सबसे बड़ी पहचान यह बन गई कि उन्होंने लालू के जातीय प्रभुत्व को सुशासन और विकास के नाम पर चुनौती दी, लेकिन सत्ता बनाए रखने के लिए जातीय और अवसरवादी गठबंधनों को ही सर्वोपरि रखा। बिहार की राजनीति भूमिहार बनाम क्षत्रिय से शुरू होकर, अगड़ा बनाम पिछड़ा के महासमर से गुजरते हुए, आज ईबीसी बनाम माय-लव-कुश की सूक्ष्म गोलबंदियों तक आ पहुंची है। इस पूरी यात्रा के अंतिम और सबसे मजबूत पड़ाव पर नीतीश खड़े हैं, जो साबित करते हैं कि बिहार में राजनीति की नब्ज आज भी जाति ही है, जिसे सुशासन के मुखौटे से ही साधा जा सकता है। 2025 के नतीजे बिहार की दशा-दिशा को निर्धारित करने वाले होंगे, लेकिन बड़ा सवाल जरूर है क्या लालू-नीतीश राज के बाद कोई नया अध्याय इन चुनाव के लिखा जाएगा…?
अवसरवादी भी…कुर्सी के लिए बार-बार पलटीमार राजनीति
- नीतीश के जीवन में उनकी बात के पक्के होने की चर्चा थी, लेकिन सत्ता की कुर्सी ने उन्हें पूरी तरह अवसरवादी बना दिया। 2013 में नरेंद्र मोदी को भाजपा ने पीएम उम्मीदवार बनाया, तो नीतीश की महत्वाकांक्षा हिलोरे मार गई। उन्होंने मिट्टी में मिल जाने की बात कहकर 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ लिया। लोकसभा चुनाव 2014 में सिर्फ 2 सीटें जीतने पर उन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देना पड़ा।
कभी भाजपा कभी राजद और कांग्रेस… नौ बार सीएम की शपथ
- 2015 : नीतीश ने राजद-कांग्रेस से गठजोड़ कर मुख्यमंत्री की शपथ ली।
- 2017 : सिर्फ दो साल बाद राजद से अलग होकर पलटी मारी और भाजपा के साथ मिलकर सीएम बन गए।
- 2022 : उन्होंने फिर पलटी मारी और भाजपा से अलग होकर राजद महागठबंधन के साथ सीएम बने।
- 2024 : वह इंडिया गठबंधन से अलग हुए और एक बार फिर पलटी मारकर एनडीए के साथ 9वीं बार मुख्यमंत्री बने।
नीतीश कुमार की यह नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की कहानी, उनकी सियासी गहराई को दर्शाती है। विरोधी उन्हें पलटूराम कहें या उनके स्वास्थ्य पर सवाल उठाएं, लेकिन वह सत्ता की उस नब्ज को जानते हैं, जिसके वैद्य उनके पिता थे।



