BLN– बात बिहार की हो या देश के अन्य राज्यों कि हालात कमोबेश एक जैसे हीं हैं। कहीं हॉस्पिटल में बेड नहीं है तो कहीं लोग समय पर ऑक्सिजन नहीं मिलने के कारण कोरोना का निवाला बन रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती है, जब प्राण त्यागने के बाद ये श्मशान पहुँचते हैं मिट्टी मे समाहित होने, तो वहाँ भी पता चलता है कि लंबी कतार लगी है, अभी जलने के लिए भी थोड़ा इंतज़ार करना होगा।
शायद आप भी मेरी तरह सोच रहे होंगे कि इतना सब हो रहा है तो सिस्टम कहाँ है? सरकार क्या कर रही है? सिस्टम आंकड़ो की हेरा-फेरि मे ब्यस्त है, सिस्टम अपना दोष दूसरे के मत्थे कैसे मढ़ें उसके लिए नए-नए बहाने तलाश रही है, और सरकार क्या कर रही है तो सरकार उसी सिस्टम को सुधारने की कोशिश में लगी है, लेकिन हमेशा की तरह एक बार फिर सिस्टम के आगे सरकार बौनी साबित हो रही है।
टीका उपलब्ध होने के बावजूद लगभग 130 करोड़ की आबादी वाले देश में 10 से 12 करोड़ टीका का डोज़ लगाने का उत्सव हो या फिर ऑक्सिजन की भारी किल्लत के बीच लोगों का ऑक्सिजन के आभाव में दम तोड़ना और फिर ये पता चलना कि हमारा देश दुनिया में ऑक्सिजन के सबसे बड़े उत्पादक देशों में से एक है।
अगर हमारे पास ऑक्सिजन है तो वह कोरोना पीड़ितों को सुलभ क्यों नहीं है ? अगर हमारे पास कोरोना का टीका है तो हम कुल आबादी के 50% लोगों का भी टीकाकरण अभी तक क्यों नहीं कर पाये?
इन खबरों को पढ़ कर सुन कर यही प्रतीत होता है कि खामी या तो नीति निर्माताओं कि नियत में है,या फिर उन नीतियों को जमीन पर उतारने वाले या लागू करने वाले जो लोग हैं यानि कि हमारा सिस्टम वह पूरी तरह से संवेदनहीन हो चुका है, और सिस्टम कि संवेदन्हींता कि पराकाष्ठा हीं है कि शमशान मे शव घंटों अपने अंतिम संस्कार के इंतज़ार में पड़े रहते है।
जब शव को चिता कि आग नसीब हो भी जाती है, तब वही सिस्टम जिसके कारण कुछ घंटे पहले किसी का बाप, भाई, बहन, बेटा, बेटी जो अब सबों के लिए बस एक बॉडी बन चुका है उसकी जलती हुई चिता पर मानो नाचता हुआ (रक्स) कहता है कि तुम्हारी मौत तो कोरोना के कारण हुई हीं नहीं, ऑक्सिजन कि कोई किल्लत है हीं नहीं, हॉस्पिटल में बेड भी खाली पड़े हुए हैं, कम से कम हमे बताते तो सही ऐसे हीं रुखसत हो लिए दुनिया से।
अब तक हम समझते थे कि सरकार जिसका नाम है वह बहोत शक्तिशाली होती है, उसके करोड़ो हाथ होते हैं, उसकी नज़रों से कुछ छुप नहीं सकता है कोई भी मुसीबत अगर आई तब सरकार तो है हीं हमारी रक्षा के लिए लेकिन कोरोना के इस दौर में सरकार के भरोसे जीना तो अब दूर कि बात है, यहाँ अब तो लोगों के लिए चैन से मरना भी दुश्वार हो रहा है।
इस समय हमारे सिस्टम में संवेदना कि बहोत कमी दिख रही है, सिस्टम अपनी गलतियों को ढकने मे ज्यड़ा ब्यस्त दिखाई पड़ रहा है वनिस्पत इसके कि वह आम लोगों के दर्द और तकलीफ को समझे वह ऑल इज वेल वाली भूमिका में नज़र आ रहा है।
जिस तरह एक चावल से सभी चावल पके या नहीं पके उसका हाल पता चल जाता है उसी तरह राज्यों कि राजधानी और कुछेक जिला मुख्यालयों का हाल देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि सुदूर अनुमंडलों और पंचायतों में कितनी विकट स्थिति होगी।
ऐसे माहौल में आवश्यक है कि हम सरकार और स्वास्थ्य विभाग के दिशा निर्देशों का पूरी तरह से पालन करें और अपने सिस्टम को और अधिक संवेदनशील, पारदर्शी और जिम्मेदार कैसे बनाए इस पर भी विचार करें क्योंकि सरकार तो आप 5 साल में बदल सकते हैं सिस्टम नहीं।
सरकार किसी कि भी हो अगर सिस्टम ठीक नहीं होगा तो स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन कि उम्मीद रखना बेमानी है ,कुछ लोग जो अपने परिजनो कि चिता को आग देकर लौट रहे थे उनको कहीं मैंने यह भी बोलते हुआ सुना कि ‘उसकी’ सरकार रहती तो ऐसा नहीं होता तो ऐसे लोगों से मैं यही कहना चाहूँगा कि सरकार नहीं पहले सिस्टम बदलने पर विचार करें ,सरकारें तो आएंगी जाएंगी लेकिन सिस्टम जहां है वहीं रहेगा।
अंत मे दुष्यंत कुमार कि कविता कि कुछ पंक्तियों के साथ आपको छोड़े जाता हूँ।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से अब हर हाल में, कोई गंगा निकलनी चाहिए।