वेदमूर्ति क्या होते हैं?
वेदमूर्ति वे महान विद्वान होते हैं, जिन्हें वेदों का संपूर्ण ज्ञान होता है। वे न केवल वेदों के ज्ञाता होते हैं, बल्कि वेदों की परंपरा और ज्ञान की रक्षा करने वाले संरक्षक भी होते हैं। देवव्रत महेश रेखे ने यह उपाधि पाकर यह साबित किया है कि युवा पीढ़ी में भी वैदिक ज्ञान और साधना का अद्भुत समर्पण संभव है।
माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के 1975 मंत्रों में आखिर है क्या?
इसके प्रथम अध्याय की शुरुआत पलाश के पेड़ की एक शाखा काटने और उसे हवन के लिए उपयोग में लेने की प्रक्रिया के साथ होती है। पहले ही मंत्र में अन्न की प्राप्ति करने, तेजस्वी बनने, उन्नतिशील शक्तियां प्राप्त करने, मातृभूमि के रक्षक बनने और सज्जनों की संख्या में वृद्धि करने का आह्वान है।
किस अध्याय में है जीवन दर्शन का सार?
शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा का 40वां अध्याय विशुद्ध ज्ञान-परक है। उसका नाम ‘ईशावास्योपनिषद’ है। इसमें 17 मंत्र हैं, जो स्मरण, सामर्थ्य, अनुशासन, आत्म चेतना और कर्म पर जोर देते हैं। जानिए इन मंत्रों का सार…
1. ईश्वर ने जो सौंपा, उसी का उपयोग करें
इस सृष्टि में जो कुछ भी जड़ अथवा चेतन है, वह सब ईश्वर के अधिकार में है। केवल उसके द्वारा छोड़े गए और सौंपे गए का ही उपभोग करें। अधिक का लालच न करें। क्योंकि यह सब कुछ किसका है? किसी व्यक्ति का नहीं केवल ‘ईश’ का ही है।
2. अनुशासन से विकार नहीं आता
कर्म करते हुए पूर्णायु की कामना करें। अनुशासित कर्म मनुष्य को विकारग्रस्त नहीं करते। विकार मुक्त जीवन जीने के अतिरिक्त परम कल्याण का और कोई अन्यमार्ग नहीं है।
3. अनुशासन का उल्लंघन करने पर क्या होता है
अनुशासन का उल्लंघन करने वाले लोग ‘असुर्य’ यानी केवल शरीर एवं इन्द्रियों की शक्ति पर निर्भर रहने और सद्-विवेक की उपेक्षा करने वाले नामों से जाने जाते हैं। वे जीवनभर गहन अंधकार और अज्ञान से घिरे रहते हैं। आत्मा यानी आत्म चेतना के निर्देशों का हनन करने वाले लोग शरीर छूटने पर भी वैसे ही अंधकारयुक्त लोकों में जाते हैं।
4. स्मरण, सामर्थ्य और कर्म
यह जीवन यानी अस्तित्व वायु, अग्नि आदि पंचभूतों और आत्म चेतना के संयोग से बना है। शरीर तो अंततः भस्म हो जाने वाला है। इसलिए परमात्मा का स्मरण करो, अपने सामर्थ्य का स्मरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उनका स्मरण करो।
5. सत्य का स्वरूप
सोने के चमकदार लुभावने जैसे पात्र से सत्य का स्वरूप ढंका हुआ है। जब आवरण हटता है, तब पता लगता है कि वह जो आदित्यरूप पुरुष है, वही आत्मरूप में है। ‘ॐ’ ही ब्रह्म रूप में व्याप्त है।
देवव्रत के बारे में जानिए
देवव्रत महेश रेखे मूल रूप से महाराष्ट्र के अहिल्यानगर के रहने वाले हैं। महज 19 वर्ष की आयु में उन्होंने वेदों के प्रति वह समर्पण दिखाया है जो बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी दुर्लभ है। देवव्रत वर्तमान में वाराणसी (काशी) के रामघाट स्थित वल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय के छात्र हैं। देवव्रत एक वैदिक परिवार से आते हैं। उनके पिता वेदब्रह्मश्री महेश चंद्रकांत रेखे स्वयं एक प्रतिष्ठित वैदिक विद्वान हैं और उन्होंने ही देवव्रत को इस कठिन मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित किया है।
(नोट: इस समाचार में उल्लेखित जानकारी यजुर्वेद संहिता पर प्रकाशित पुस्तकों और वेदमूर्तियों से मिले मार्गदर्शन पर आधारित है।)



