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Rupee vs Dollar: रुपया 90 पार; क्या कभी डॉलर जितनी मूल्यवान थी भारतीय मुद्रा? जानिए गिरावट की अनकही कहानी

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Rupee vs Dollar: रुपया 90 पार; क्या कभी डॉलर जितनी मूल्यवान थी भारतीय मुद्रा? जानिए गिरावट की अनकही कहानी

रुपये में गिरावट के लिहाज से साल 1991 भी देश के लिए काफी अहम साबित हुआ। यह वही साल था जब आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे देश ने आर्थिक उदारीकरण का रास्ता अपनाया। इस समय रुपया 21 से गिरकर 26 के करीब पहुंच गया। यह भारत के आर्थिक इतिहास का सबसे नाजुक मोड़ था। भुगतान संतुलन के संकट के कारण भारत के पास आयात (तेल, जरूरी सामान) खरीदने के लिए सिर्फ तीन हफ्ते का विदेशी मुद्रा भंडार (Forex) बचा था।

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दूसरी ओर, खाड़ी युद्ध यानी इराक-कुवैत युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गईं, जिससे भारत का आयात बहुत बिल भारी हो गया। इससे रुपया और कमजोर पड़ने लगा। देश में राजनीतिक उथल-पुथल थी, निवेशकों का भरोसा भी घटता जा रहा था। इस संकट से निकलने के लिए, तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अर्थव्यवस्था को खोलने (Liberalization) का फैसला लिया और रुपये को दो चरणों में अवमूल्यित किया ताकि निर्यात सस्ते हो सकें और विदेशी मुद्रा देश में आ सके।

2008 की आर्थिक मंदी के दौरानफिर टूटा रुपया

1991 के बाद देश में गठबंधन की सरकारों का दौर चला। रुपये को इसका बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा। 1991 से 2008 के बीच रुपया कमजोर होकर ₹39 पर पहुंच गया। 2008 की मंदी के बाद रुपये में फिर एक बड़ी गिरावट आई और यह टूटकर एक डॉलर के मुकाबले 51 रुपये के पार पहुंच गया। हालांकि, यह गिरावट भारत की वजह से नहीं, बल्कि वैश्विक कारणों से थी। अमेरिका में लेहमन ब्रदर्स बैंक डूबने से पूरी दुनिया में मंदी (Recession) आ गई। विदेशी निवेशकों (FIIs) ने जोखिम से बचने के लिए भारत जैसे उभरते बाजारों से अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया और वापस अमेरिकी डॉलर में निवेश करने लगे। जब डॉलर की मांग बढ़ी, तो रुपया और कमजोर पड़ गया।

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2013 में ‘टेपर टैन्ट्रम’ से रुपये को फिर झेलना पड़ा नुकसान

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से पहले रुपये में आखिरी बड़ी गिरावट आई साल 2013 में। इस दौरान रुपया एक डॉलर के मुकाबले 55 रुपये से फिसलकर ₹68.80 तक पहुंच गया। इसके क्या कारण थे ये भी जान लीजिए। दरअसल, इस वर्ष यूएस फेडरल रिजर्व ने घोषणा की कि वे बाजार में पैसा डालना कम (Taper) करेंगे। इस टेपर टैन्ट्रम की खबर से डरकर निवेशकों ने भारत से भारी मात्रा में पैसा निकाल लिया। इसी दौरान में मॉर्गन स्टेनली ने भारत को ‘फ्रेजाइल फाइव’ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया था क्योंकि हमारा चालू खाता घाटा (CAD) और महंगाई बहुत अधिक हो गया था।

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